कभी भोर की प्रथम किरण सी सुलझी,
तो कभी अपने ही बुने सवालों में उलझी ।
वो चंचल, चुलबुल तरंग सी है,
आज़ाद, बेपरवाह कटी पतंग सी है।
कभी कोमलता से लोहे को पिघलाती,
तो कभी कठोर वीरांगना की झलक दिखाती।
वो निडर, सूक्ष्म सौम्या सी है,
संवेदना के गहरे महासागर सी है।
कभी किसी खुली किताब की पंक्ति,
तो कभी महान रहस्यों से सिमटी ।
वो मनचली, तेज़ बहती हवा सी है,
किसी कलाकार की सर्वोत्तम कला सी है।
- आज्ञा